कहानी - रामकृष्ण परमहंस बहुत अलग स्वभाव के संत थे। वे जो भी काम करते, चिंता मुक्त होकर करते थे। बातचीत करते-करते रोने लगते, कभी खड़े होकर नाचने लगते, देवी की मूर्ति के सामने खड़े-खड़े बेहोश हो जाते थे।
परमहंसजी के शिष्य जानते थे कि उनके गुरु जो भी काम करेंगे, निराले ढंग से ही करेंगे, लेकिन वे एक काम बहुत डूबकर और ध्यान से करते थे, वह काम था अपना लोटा मांजने का।
परमहंसजी के पास एक लोटा था, जिसका उपयोग निजी कामों के लिए करते थे। वे इस लोटे को दिन में 3-4 बार मांजते थे। रात में सोने से पहले और सुबह उठने के बाद वे लोटा साफ करना भूलते नहीं थे। वे लोटे को साधारण ढंग से नहीं, बल्कि बहुत गहराई से रगड़-रगड़कर साफ करते थे। अंगूठे से लोटे को अंदर-बाहर से चमका देते थे।
शिष्य रोज ये काम करते हुए परमहंसजी को देखते थे। उन्हें आश्चर्य होता था कि परमहंसजी इस काम को इतना डूबकर क्यों करते हैं? लोटा तो कोई भी मांज सकता है, वे खुद ये काम इस तरह से क्यों करते हैं? एक दिन शिष्यों ने अपने गुरु से पूछा, 'आप लोटे को इतनी तन्मयता से क्यों धोते हैं? क्या इसके पीछे कोई राज है? क्या ये जादुई लोटा है?'
परमहंसजी ने मुस्कान के साथ कहा, 'सच बात है, ये जादुई लोटा है। मैं जब इस लोटे को साफ करता हूं तो ये मानकर करता हूं कि ये मेरा मन है। इस लोटे पर दिनभर में कई बार धूल जमती है, ठीक इसी तरह हमारे मन पर भी हर पल गंदगी जमा होती रहती है। इस लोटे को इतनी अच्छी तरह मांजता हूं तो ये मुझे सीख देता है कि हमारे मन को भी इसी तरह साफ करते रहना चाहिए। हर पल इस मन पर गंदगी जमती रहती है और अगर आप एक बार भी चूक गए तो ये मन आपसे गलत काम करवा लेगा।'
सीख - हमें अपने मन को हर पल बुराइयों से बचाना चाहिए। अगर मन साफ नहीं करेंगे तो ये हमसे गलत काम करवा लेगा। साफ-सफाई के काम से ये संदेश लेना चाहिए कि हमें शरीर को बाहर से ही नहीं, बल्कि अंदर से साफ रखना चाहिए।
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